फ़रेबी आँखें
@ CUJ
उस दिन विश्वविद्यालय में हमारा आखिरी दिन था मतलब हम उस दिन के बाद विश्वविद्यालय के छात्र नही रहेंगे।
हमारा फेयरवेल हो चुका था, फिर मिलने के कसमें-वादे पूरे हो चुके थे, सर-मैम सबका आशीर्वचन मिल
चुके थे, हमारा विश्वविद्यालय पहचान पत्र हमसे वापस ले लिया गया था, हम अपना यूनिफार्म धुलवाकर बैग में रख चुके थे, हम ग्रुप फोटो, सेल्फी फेसबुक-व्हाट्सएप्प पर डाल चुके थे, कुछ लोग अपने बिछड़ने का गम मना रहे थे कुछ मन-ही-मन अपनी नयी उड़ान का जश्न।
मेरे साथ भी वैसा ही कुछ हो रहा था लेकिन मैं बेहद संघर्ष के बाद अपने आपको सम्हाले हुए था ताकि लोगों को लगे की मैं कितना अन्दर से मजबूत हूँ।
शायद ख़ुद को बता रहा था कि देख मैं कितना बेहतरीन अभिनेता हूँ जो दिल के फफक-फफक के रोने के बाद भी अपने होठों और चेहरे को बयां करने की इज़ाजत नहीं दे रहा।
कितनी कठिनाई से वो मुस्कान लाया था उस वक्त, जब मेरी मित्र मंडली के कई करीबियों ने कहा कि ‘तुम बहुत कम दिन रहे कैंपस में और प्रैक्टिकल भी हो इसलिए छोड़ने का मोह नहीं हो रहा तुम्हें’।
मैं उनको कैसे समझता मेरे और विश्वविद्यालय की मोहब्बत को (जिसकी तीव्रता मुझे अब ज्ञात हो रहा जो निरंतर बढ़ता ही जा रहा)। कैसे परिभाषित करता उस अभिमान को जो वहाँ के वातावरण ने दिया, कैसे परिभाषित करता उस आत्मविश्वास को जो मुझे खुद से परिचय करवाया, कैसे भूल सकता हूँ उन गुरुजनों व पदाधिकारियों को जो मेरा नाम ‘बी.डी. कपूर’ जानते हैं, नहीं भूल सकता उन हज़ार गुडमोर्निंग विशेस को जो रूम से क्लास जाते हुए मेरे सैकड़ों जूनियर्स विश करते थे जिनका नाम तक नहीं जनता मैं।
मोह है उनलोगों का जिनसे कोई वास्ता नहीं था बस नज़रें मिलने पर एक प्यारी मुस्कान आ जाती थी दोनों के चेहरों पर। लालच है उन काली आँखों का जो छुप-छुपकर मेरे सारे सुकर्मो-कुकर्मों सब पर पैनी नज़र रखती थी, लालच है उन दर्जनों जुबानों का, जिसके हर थिरकन पर चहक उठता हूँ मैं।
मैं चाहता था वहाँ का सबकुछ बटोर कर साथ ले जाऊं,
105 गार्ड (जिनसे मेरी अच्छी बनती थी) की सिक्योरिटी, 51
एकड़ का प्रांगण, पेड़ पौधे सबकुछ, जहाँ न डर था, न ही कोई बंधन।
ऊपर से मेरे हाई कॉंफिडेंट रूम पार्टनर (चंद्रकांत एवं शुभम) जिनके बिना शायद मेरी होस्टल लाइफ फीकी रह जाती, बात-बात पर हमारी पार्टी डिमांड जो कभी पूरा नहीं करता कोई, 2 बजे रात में घूम घूमकर कॉफ़ी पीना और ‘शुभम’ की शायरियों पर वाह-वाह करना, जो रात के २-३ बजे के बाद ताजी बनती थी, कितने महफूज़ थे हम, मोह तो है। जानबूझ कर ‘चंद्रकांत’ को परेशान करना व वेवजह पीटना, कोई
चौथा
अगर
रूम
आ
गया
तो
एकता
का
परिचय
देते
हुए
उसकी
खिचाई
करना,
उसके
साथ
रूमवाद
करना।
मोह तो है उस दोस्त का जो अब पास न होते हुए भी पास होगी, ‘प्रज्ञा राजवंश’ एक ऐसी नाम जो लोगों को कंफ्यूज करती रही, जलाती रही, हैरान करती रही और मुझे हमेशा प्रेरित करती रही, सकारात्मक उर्जा भरती रही, आँसू बहाने के लिए कन्धा एवं आँसू पोछने को दुपट्टा देती रही। समझ नही आ रहा उन्हें शुक्रिया कहूँ या नही जिसने मेरे नकारात्मकता को संशोधित कर उर्जावान आत्मविश्वास में बदल दिया, एक हीन भावना से ग्रसित रंग छात्र को मालकाम एवं बी.डी. कपूर जैसे किरदार देकर विश्वविद्यालय व देश के कई मंचों पर खड़ा कर दिया।
लेकिन इस बात की भनक तक नहीं लगी की एक दिन सब छुट जायेगा और जो
फिर नसीब नहीं होगा।
मैं, नितीश और उज्जवल बाँए से दांयी तरफ |
खैर अब यकीन होने लगा है कि मैं उम्र में बड़ा हो गया हूँ, बस कभी-कभी बिजली कटती है तो लगता है कि इंटरनेट भी कट गया होगा....
विपुल आनंद
Master
in Theatre Arts
Central
University of Jharkhand