शुक्रवार, 26 सितंबर 2014


"बद-रंग कलाकार"


कवि - अमन आकाश 
मैं एक कलाकार हुँ,
पर दुनिया कहती है कि 
मैं बेकार हुँ।
राह उड़ती धूल भी मुझे "नचनिया" कहकर चिढ़ाती है,
यह दुनिया पीठ-पीछे तो हँसती ही है, 
अब सामने भी मजाक उड़ाती है। माँ-बाप कहते रहे कि बेटा -
डॉक्टर बनो-इंजीनियर बनो,
पर मुझे तो था कला से ही प्यार,
शायद सच ही सोचते थे मेरे माँ-बाप, 
कि सचमुच फक्कड़ होते हैं कलाकार। नाटक-नुक्कड़ तक ही सीमित होती है मेरे लिए तालियाँ,
उसके बाद तो अपनी ग़ैरत भी देती हैं गालियाँ। खुश हो जाता हुँ, 
पेपर के एक कोने में छपी अपनी छोटी-सी तस्वीर देखकर,
तो लोग यह कहकर दिल तोड़ देते हैं कि 
अभी बरसात है,
जिसमें उफनती ही हैं छोटी-छोटी नालियाँ। महज दो-ढाई घंटों की हमारी प्रस्तुति 
आह से वाह तक निकलवा देती है 
और ज़िंदगी की हमारी असली दौड़ 
आह से शुरू होकर आह पर ही तबाह हो जाती है। पहले सुनता था " पैसे से कला को खरीदा नहीं जा सकता" 
अब सोचता हुँ कि "कला से पैसे नहीं पा सकते"। कब तलक़ कटेगी यूँ हमारी जिंदगानी,
माँ सरस्वती तो खुश है हमपर पर पता नहीं कब होगी 
लक्ष्मी मैया की मेहरबानी।  


-अमन आकाश

बुधवार, 17 सितंबर 2014


                                 नाटक - 'बाघिन मेरी साथिन' मेरी नज़र में......
नोबल पुरस्कार-प्राप्त इटली के प्रख्यात नाटककार (Actor, Director, Playwright and composer also) दरिओ फ़ो के द्वारा इतालवी भाषा में लिखा गया नाटक- "La storia di una tigre" का हिंदी रूपांतरण है, 'बाघिन मेरी साथिन'; जिसे शाहिद अनवर ने हिंदी में अनुवाद किया। यह चीन के किसी जंग में फँसे एक सैनिक की कहानी है, जिसकी जान एक बाघिन बचाती है।
निर्देशक- श्री परवेज़ अख्तर
नटमंडप द्वारा श्री परवेज़ अख्तर के निर्देशन में प्रस्तुत नाटक 'बाघिन मेरी साथिन' मेरी पसंदीदा प्रस्तुतियों में से एक है। इसका पहला मंचन 6 मई 2011 को कालिदास रंगालय में किया गया। अब तक लगभग 20 बार प्रदर्शित हो चुके इस नाटक का 2 प्रदर्शन चौदहवें भारत रंग महोत्सव में भी दिनांक 17 जनवरी 2012 को मेघदूत सभागार में किया गया। इस प्रस्तुति में ऐसी कई बातें हैं, जो पहली बार देखने वालों को हैरत में डाल दे। जैसे- गाजर का इस्तमाल से नरसिम्हा अवतार की युक्ति या फिर, एक ही अभिनेता के माध्यम से बाघिन, बाघिन का बच्चा (छोटुआ) तथा सैनिक को एक साथ बात करते हुए दिखाना आदि। यह नाटक तस्वीर में जितना साधारण दीखता है, उतना ही असाधारण प्रेक्षागृह से लगता है। मैं अपने विज़िटर्स को साफ बता दूँ कि काले परदे, दो - तीन डंडे तथा बिना चादर की चौकियों को देखकर, आप इस नाटक को देखने या नहीं देखने के निर्णय लेने में धोखा खा सकते हैं। इस प्रस्तुति की यह बहुत बड़ी खासियत कि एक निर्देशक / अभिनेता ने अपने आसपास की चीजों का जबरदस्त इस्तमाल अपने नाटक में किया है। एक दर्शक रूप में मैंने देखा कि इस नाटक की सभी चीजों को अलग-अलग देखने पर ये सब बिलकुल साधारण और प्रभावहीन दीखते हैं; जैसे - प्रॉप्स, लाइट, मेकअप, वस्त्र सबकुछ; लेकिन सबको एक साथ, समवेत रूप में देखना चौकाने वाला है।

बाघिन मेरी साथिन की हर प्रस्तुति में अपने आपको एक मजबूत अभिनेता साबित करते हैं, जावेद अख्तर खान । मंच पर होते हुए भी दर्शकों को अपने नाटक का हिस्सा बनाते देखा है मैंने इन्हें। जैसे- दिनांक 05.04.2014 को किलकारी के बच्चों को कोरस के रूप में इस्तमाल कर लेना या उसके अगले शो में डायलॉग बोलने के क्रम में हीं कैमरामैन को फ़्लैश ऑफ करने को कह देना और पुनः अपने चरित्र में वापस आ जाना। मेरे हिसाब से किसी साधारण अभिनेता का काम नहीं है। एक बात और, जो मैं बेहिचक कहना चाहूँगा कि पुरे नाटक में अपनी ऊर्जा का संतुलन बनाये रखना तथा सही वक़्त पर भरपूर इस्तमाल करना कोई जावेद अख्तर खान से सीखे। दूसरी बात यह कि characterization (जो मुझे कम ही समझ में आता है) वो बेहद आकर्षक था ! खासकर गांव के बूढ़े व्यक्ति तथा नेता जी का। साथ हीं हर चरित्र की आवाज़, चलना- फिरना, उसकी मानसिकता बिलकुल अलग थी, जैसा कि मैं प्रेक्षागृह से देख पा रहा था। तीसरी बात कि जब बाघिन सैनिक को जबरदस्ती दूध पिला रही होती है, सैनिक दूध नहीं पीना चाहता है, तब इन्होंने, जो तीनो की उस समय की मनःस्थिति को दिखाया है, वह क़ाबिले तारीफ है। बाघिन का गुस्सा, सैनिक की बेबसी और छोटुआ (बाघिन का बच्चा) मजे लेना, तीनो एक साथ देखना मेरे लिए काफी रोमांचक था (टाइप करते वक़्त भी मेरे रोंगटे खड़े हैं) चौथी और आखिरी बात इनकी दोषमुक्त हिंदी, माइंड ब्लोइंग। खैर, इस नाटक तथा जावेद अख्तर खान के बारे में प्रदेश के नाट्य-दर्शक पहले से ही मुझसे ज्यादा जानते हैं ..............
Note- यह लेख नाटक बाघिन मेरी साथिन की समीक्षा नहीं है। यह लेख सिर्फ नाटक देखते हुए तथा देखने के बाद की मेरी अनुभूति पर आधारित है।

सोमवार, 15 सितंबर 2014


                                         नाटक- 'नटमेठिया' प्रेक्षागृह से.....


नाटक - नटमेठिया में भिखारी ठाकुर की भूमिका में अजीत कुमार
               रणधीर कुमार द्वारा निर्देशित नाटक नटमेठिया वर्ष 2014 में पटना में प्रदर्शित हुये 2-4 बेहतरीन नाटकों में से एक है। इस प्रस्तुति की सबसे खास बात यह थी कि पुरे नाटक के दृश्यों को निर्देशक / नाटककार महोदय ने बहुत ही अच्छी तरह से बुना हुआ था। साथ हीं इस नाटक को परोसने का अंदाज़  भी  बिलकुल अलग था जैसे एक पात्र को नौ अभिनेताओं से प्रदर्शित करवाना, या एक दृश्य का दूसरे दृश्य में समाहित होना, देखने लायक था। नाटक की गति और खूबसूरती में इतना सामंजस्य था कि हमें पलक झपकते हुए भी डर लग रहा था कि कहीं इस दौरान नाटक का कोई खूबसूरत हिस्सा अनदेखा न रह जाये। शायद यही वजह है कि नटमेठिया के अब तक हुए पाँच मंचन को देखने बावजूद भी मैं छठे के इंतज़ार में हूँ।


       नाटक - नटमेठिया के एक दृश्य में आशुतोष अभिज्ञ 
नाटक की शुरुआत काफी अच्छी रही। पहले सूत्रधार का माइक लिये प्रवेश, सूत्रधार का मोबइल को ऑफ करने का रिक्वेस्ट करना बिलकुल अनोखा था। जो दर्शकों को पूरा नाटक देखने के लिए उत्साहित कर रहा था। साथ हीं इस नाटक में दो - तीन चीजें ऐसी थी जो पटना रंगमच के कुछ गिनेचुने नाटकों में हीं होता है। जैसे की एक हीं props का स्वरुप दृश्य के हिसाब से बदलते जाना, Props का Shifting, Entry-exit का सलीके से होना, पेंटिंग का इस्तमाल, इत्यादि। इस प्रकार बहुत हीं नयनप्रिय तरीके से लगभग डेढ़ - दो घंटे में भिखरी ठाकुर की ज़िन्दगी का एक बड़ा सा हिस्सा इस नाटक में जीवंत होता है। इस नाटक के अंदर एक खास चीज थी जो मुझे एक दर्शक के रूप में बेहद पसंद आया। वो था अजीत कुमार  और आशुतोष अभिज्ञ  का प्रदर्शन ! (दोनों पटना रंगमंच के सधे हुये अभिनेताओं में से एक हैं, हाल में हीं रंगकर्मी श्री कान्त मन्डल सम्मान २०१४ के लिए श्री आशुतोष अभिज्ञ को चुना गया है। ) जो वाकई क़ाबिले तारीफ था। या इस बात को यूँ भी कहा सकता है कि निर्देशक रणधीर कुमार ने अपने अभिनेताओं के अभिनय क्षमता का भरपूर सदुपयोग नाटक नटमेठिया में किया। मामला जो भी हो, लेकिन इन दोनों अभिनेताओं द्वारा किये गए अलग - अलग सोलो पार्ट, अजीत कुमार के द्वारा किये गये अभिनय में विभिन्न पात्रों पर detail work का  दिखना, आशुतोष अभिज्ञ के द्वारा किये  अभिनय में charactor के innocent हरकतों का दिखना, दर्शकों के बीच आकर्षण का केंद्र बना हुआ थामुझे बेहद अच्छा लग रहा था जब मेरे बगल में बैठे बंधु आपस में फुसफुसाते हुए इन दोनों की तारीफ कर रहे थे, और जब अजीत कुमार को अलग - अलग किरदारों में पहचान नहीं पते थे तब  तसल्ली  लिए धीरे से मुझसे पूछ बैठते थे कि क्या वाकई यह आदमी वही है जो अभी मंच से गया था। खैर, नाटक का आखरी 10 मिनट काफी रोमांचक था जो एक साथ दो-दो टेस्ट देता है, एक तरफ भिखारी ठाकुर का दर्द तो दूसरी तरफ बिहार का पारम्परिक नाच। इसी दृश्य में नाटक में परदे का समियाना बन जाना भी काफी आकर्षक था। साथ ही मंच पार्श्व के सभी कलाकारों के बेहतरीन प्रदर्शन इस नाटक की खूबसूरती को चार चाँद लगा रहे थे। 
                                                                                         प्रेक्षागृह के बाहर प्रस्तुति के कई दिनों बाद भी नाटक नटमेठिया के नाटककार पुंज प्रकाश अपने सशक्त लेखन क्षमता तथा नाटक के डायलाग में उपयोग होने वाली बोलचाल की भाषा को लेकर चर्चा में बने रहे। नाटक के संगीत के लिए भी इनकी जमकर तारीफ हुयी।

                           नाटक - नटमेठिया की सफल प्रस्तुतियों के लिये राग रंगमंडल को हार्दिक बधाई।

Note- यह लेख नाटक नटमेठिया की समीक्षा नहीं है। यह लेख सिर्फ नाटक देखते हुए तथा देखने के बाद की                 मेरी अनुभूति और कुछ दर्शकों से मेरी हुयी आपसी बातचीत पर आधारित है।
                                                                         

शनिवार, 13 सितंबर 2014

आम, और 'आम '....


गली में चिल्लाया फलवाला..
ले लो आम-ले लो आम, मैंने पूछा - कैसे दाम..? फिर एक आवाज आयी - सत्तर रुपये किलो। मैंने कहा कि भैया मेरे,सत्तर रुपये किलो है जिसका दाम,
उसका नाम भला कैसे "आम"..? यह नाम मुझे नहीं आया रास,
इसे तो होना चाहिए कुछ ख़ास। फल वाला निकला बड़ा बुद्धिमान,
उसने दिखाया मुझे पूरा भारत महान। बड़े प्यार से वह बोला -
बेटा,जिसके पास सब अधिकार हों वह क्या कहलाता है..? मैंने धीरे से मुँह खोला और ठाठ से बोला - राजा। उसने फिर पूछा : तो फिर हमारे यहाँ का राजा कौन..? मैं कुछ क्षण रहा मौन और फिर बोला - आम जनता। उसने फिर दागा एक सवाल : भारत में सबसे ज्यादा किसको चूसा जाता है..? पहले मैं चकराया,फिर होश में आया और बताया -आम जनता को। अब फल वाले ने पहले मुँह, फिर राज खोला : 
आम जनता और आम में है यह एक समानता।
कहलाने को तो दोनों ही राजा हैं,
पर हमारे देश में इन दोनों को ही सबसे ज्यादा चूसा जाता है।
चाहे कितना भी क्यों ना हो दाम,
कहलाएगा यह हमेशा ही "आम"।
फल वाला फिर हुआ शायराना, और बोला -
बेटा,अब तू हुआ सयाना,"आम" के दाम पर कभी मत जाना।
इसको सदियों से चूसा जाता आया है और भविष्य में भी चूसा ही जाएगा। आम के बारे में क्या कुछ और बोल दूँ..? चल छोड़,पर यह बता तेरे लिए कितना तौल दूँ..?

 
- अमन आकाश






कवि का परिचय -

अमन आकाश 
                                         अपनी बातों को बेबाकी से रखने में माहिर 'अमन आकाश' बहुरंगी प्रतिभा के धनी हैं। जो फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पत्रकारिता के द्वितीय वर्ष के छात्र हैं।दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों में आयोजित होने वाले लेखन प्रतियोगिताओं में दिल्ली विश्वविद्यालय ने इन्‍हें इनके विभिन्न रचनाओ के लिये लगभग पाँच बार पुरस्कृत किया है, जिसमे अपनी कविता 'सिसकियां' के लिये श्रेष्ठ कवि के खिताब से नवाज़े गये।दर्जनों कविता,लेख, व्यंग लिख चुके अमन आकाश की रचनाएँ आए दिन अखबारों और पत्रिकाओं में छपती रहती है।हाल में ही इन्हें अपने कॉलेज Sri Guru Nanak Dev Khalsa College (University of Delhi) से प्रकाशित होने वाले अखबार 'खालसा ख़बर' का मुख्य संपादक नियुक्त किया गया। 


 
सम्पर्क-  करोल बाग़, दिल्ली
Mob.- 09135151554 
(मूल निवास- चोरौत, सीतामढी, बिहार )


मंगलवार, 9 सितंबर 2014

                                 रंगमंच को गाली देने वाले रंगकर्मियों के खिलाफ -


                                                                  
         कितनी अजीब बात है कि जिस रंगमंच के लिए हमारे कुछ रंगकर्मी भाई साहब ने अपने ज़माने में सबकुछ छोड़ा था, आज वो उस रंगमंच को गाली देते हुए नहीं थकते हैं। आज हर जगह ये भ्रांतियां फैला रहे हैं कि रंगमंच ने उनकी ज़िन्दगी तबाह कर दी।  मैं उन तमाम भाई साहब से पूछना चाहूंगा की आपने रंगमंच को क्या दिया ? आपने अपने आने वाली पीढ़ी के लिए क्या छोड़ा ? शराब की बोतले ! अभी आप हमारी पीढ़ी को क्या सीखा रहे हैं ? अपने वरिष्ठ तथा सम्मानित रंगकर्मियों को गाली देना, उन्हें अपमानित करना ! क्या ? माफ़ कीजियेगा भाई साहब, मुझे आपसे घिन्न आती है जब आप अपनेआप को बड़ा या सच्चा रंगकर्मी साबित करने के लिए हमारे आदर्श, गुरु तथा प्रख्यात रंगकर्मियों के बारे में उलटी - सीधी बातें कर उन्हें हमारी नज़रों में गिराने या उनका कद कम करने की कोशिश करते हैं। लेकिन सच मानिये आपके लाख कोशिशों के बावजूद भी उनका इज़्ज़त हमारी नज़रों में बरक़रार है और हमें अपनी इस नज़र पर गर्व है। भाई साहब हम कच्चे जरूर हैं लेकिन इतना तो हमें समझ में आता है कि कोई आदमी शीर्ष पर तभी होता है जब वो उस ऊंचाई के क़ाबिल होता है। (उनका ईमानदार होना या नहीं होना अलग मसला है
          मुझे बड़ा आश्चर्य होता है जब कोई रंगकर्मी अपना प्रदर्शन करने के बाद कॉलर खड़ा कर प्रेक्षागृह के बाहर स्टाइल सिगरेट पीते हुए लोगों की बधाइयों के लिए पोज़ दिए खड़ा रहते हैंऔर अगर आप उधर से गुज़र रहे होते हैं, तो आपको बुलाकर सिगरेट तथा चाय के लिए आमंत्रित करते हैं, ताकि आप उनके प्रदर्शन की झूठी तारीफ करें। खैर, हमें इन बातों से ऐतराज़ नहीं है बस आश्चर्य होता है।

       मैंने पटना तथा दिल्ली रंगमंच में रहते हुए बहुत से ऐसे लोगों को भी झेला है जिसकी कोई औकात नहीं है। (काम के आधार पर) फिर भी वो किसी भी बड़े रंग विद्वानों की आलोचना उनके व्यक्तित्व, चरित्र तथा प्रेम संबंधों के आधार पर करते हैं कहते - कहते यहाँ तक कह देते हैं कि- वो रंग विद्वान दरअसल बहुत बड़ा अय्याश है, तथा उनका रंगमंडल / रंगपरिवार अय्याशी का अड्डा। जबकि उनके काम के बारे में चन्द शब्द भी बोलने को नहीं मिलता। शब्द कैसे मिलेगा क्योंकि उनके काम को देखने की आदत तो भाई साहब को है हीं नहीं। उनका 
कृतिमान, उनका सम्मान भाई साहब से हज़म हीं नहीं होता। महिला रंगकर्मियों के बारे में भाई साहब को कुछ ज्यादा ही पता होता है,चाहे वो कितनी भी बड़ी अभिनेत्री/निर्देशिका/रंगमहिला क्यों हों। उनके व्यक्तिगत मामलों की खबर बड़ा जल्दी इन्हें मिल जाता है यहाँ तक की कोई नयी लड़की के आने के दूसरे दिन ही इन्हे पता चल जाता है कि उस लड़की का - प्रेमी हैं उसमे से या के साथ उसका अबैध सम्बन्ध भी है। ये बात भले ही वो महिला नहीं जानती हो, पर भाई साहब को पूरा पता होता है।वाक़ई भाय साहब आप बहुते टैलेंटेड हैं, हम तो जानबे करते कि आप एक सधे हुए रंगकर्मी हैं, लेकिन कोय आपका टैलेंटबे नै पहचाना। कोय बात ने होता है - होता है। हमरा सहानुभूति आपके साथ है।    
  • जरा सोचिये जब अपने ही लोग अपने ही लोगों के बारे में ऐसी राय बनाएंगे तो दुनिया हम पर क्यों हँसे, हमें क्यों गाली दे ? क्यों कोई माँ-बाप अपने बेटे-बेटियों को रंगमंच में आने की इज़ाज़त दे ?

Note - यह सारी बातें जो मैंने लिखी है वो मेरे व्यकिगत अनुभव के आधार पर हैं।