"बद-रंग कलाकार"
कवि - अमन आकाश |
पर दुनिया कहती है कि
मैं बेकार हुँ।
राह उड़ती धूल भी मुझे "नचनिया" कहकर चिढ़ाती है,
यह दुनिया पीठ-पीछे तो हँसती ही है,
अब सामने भी मजाक उड़ाती है। माँ-बाप कहते रहे कि बेटा -
डॉक्टर बनो-इंजीनियर बनो,
पर मुझे तो था कला से ही प्यार,
शायद सच ही सोचते थे मेरे माँ-बाप,
कि सचमुच फक्कड़ होते हैं कलाकार। नाटक-नुक्कड़ तक ही सीमित होती है मेरे लिए तालियाँ,
उसके बाद तो अपनी ग़ैरत भी देती हैं गालियाँ। खुश हो जाता हुँ,
पेपर के एक कोने में छपी अपनी छोटी-सी तस्वीर देखकर,
तो लोग यह कहकर दिल तोड़ देते हैं कि
अभी बरसात है,
जिसमें उफनती ही हैं छोटी-छोटी नालियाँ। महज दो-ढाई घंटों की हमारी प्रस्तुति
आह से वाह तक निकलवा देती है
और ज़िंदगी की हमारी असली दौड़
आह से शुरू होकर आह पर ही तबाह हो जाती है। पहले सुनता था " पैसे से कला को खरीदा नहीं जा सकता"
अब सोचता हुँ कि "कला से पैसे नहीं पा सकते"। कब तलक़ कटेगी यूँ हमारी जिंदगानी,
माँ सरस्वती तो खुश है हमपर पर पता नहीं कब होगी
लक्ष्मी मैया की मेहरबानी।
-अमन आकाश
यह कविता रंगकर्मियों के आये दिन होने वाली कठीनाईयों का प्रकटिकरण है. - अमन को शुभेक्षा
जवाब देंहटाएंसाथ ही विपुल को बधाई आप का प्रयास काविले तरिफ है... बधाई
जी धन्यवाद.....
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