बुधवार, 17 सितंबर 2014


                                 नाटक - 'बाघिन मेरी साथिन' मेरी नज़र में......
नोबल पुरस्कार-प्राप्त इटली के प्रख्यात नाटककार (Actor, Director, Playwright and composer also) दरिओ फ़ो के द्वारा इतालवी भाषा में लिखा गया नाटक- "La storia di una tigre" का हिंदी रूपांतरण है, 'बाघिन मेरी साथिन'; जिसे शाहिद अनवर ने हिंदी में अनुवाद किया। यह चीन के किसी जंग में फँसे एक सैनिक की कहानी है, जिसकी जान एक बाघिन बचाती है।
निर्देशक- श्री परवेज़ अख्तर
नटमंडप द्वारा श्री परवेज़ अख्तर के निर्देशन में प्रस्तुत नाटक 'बाघिन मेरी साथिन' मेरी पसंदीदा प्रस्तुतियों में से एक है। इसका पहला मंचन 6 मई 2011 को कालिदास रंगालय में किया गया। अब तक लगभग 20 बार प्रदर्शित हो चुके इस नाटक का 2 प्रदर्शन चौदहवें भारत रंग महोत्सव में भी दिनांक 17 जनवरी 2012 को मेघदूत सभागार में किया गया। इस प्रस्तुति में ऐसी कई बातें हैं, जो पहली बार देखने वालों को हैरत में डाल दे। जैसे- गाजर का इस्तमाल से नरसिम्हा अवतार की युक्ति या फिर, एक ही अभिनेता के माध्यम से बाघिन, बाघिन का बच्चा (छोटुआ) तथा सैनिक को एक साथ बात करते हुए दिखाना आदि। यह नाटक तस्वीर में जितना साधारण दीखता है, उतना ही असाधारण प्रेक्षागृह से लगता है। मैं अपने विज़िटर्स को साफ बता दूँ कि काले परदे, दो - तीन डंडे तथा बिना चादर की चौकियों को देखकर, आप इस नाटक को देखने या नहीं देखने के निर्णय लेने में धोखा खा सकते हैं। इस प्रस्तुति की यह बहुत बड़ी खासियत कि एक निर्देशक / अभिनेता ने अपने आसपास की चीजों का जबरदस्त इस्तमाल अपने नाटक में किया है। एक दर्शक रूप में मैंने देखा कि इस नाटक की सभी चीजों को अलग-अलग देखने पर ये सब बिलकुल साधारण और प्रभावहीन दीखते हैं; जैसे - प्रॉप्स, लाइट, मेकअप, वस्त्र सबकुछ; लेकिन सबको एक साथ, समवेत रूप में देखना चौकाने वाला है।

बाघिन मेरी साथिन की हर प्रस्तुति में अपने आपको एक मजबूत अभिनेता साबित करते हैं, जावेद अख्तर खान । मंच पर होते हुए भी दर्शकों को अपने नाटक का हिस्सा बनाते देखा है मैंने इन्हें। जैसे- दिनांक 05.04.2014 को किलकारी के बच्चों को कोरस के रूप में इस्तमाल कर लेना या उसके अगले शो में डायलॉग बोलने के क्रम में हीं कैमरामैन को फ़्लैश ऑफ करने को कह देना और पुनः अपने चरित्र में वापस आ जाना। मेरे हिसाब से किसी साधारण अभिनेता का काम नहीं है। एक बात और, जो मैं बेहिचक कहना चाहूँगा कि पुरे नाटक में अपनी ऊर्जा का संतुलन बनाये रखना तथा सही वक़्त पर भरपूर इस्तमाल करना कोई जावेद अख्तर खान से सीखे। दूसरी बात यह कि characterization (जो मुझे कम ही समझ में आता है) वो बेहद आकर्षक था ! खासकर गांव के बूढ़े व्यक्ति तथा नेता जी का। साथ हीं हर चरित्र की आवाज़, चलना- फिरना, उसकी मानसिकता बिलकुल अलग थी, जैसा कि मैं प्रेक्षागृह से देख पा रहा था। तीसरी बात कि जब बाघिन सैनिक को जबरदस्ती दूध पिला रही होती है, सैनिक दूध नहीं पीना चाहता है, तब इन्होंने, जो तीनो की उस समय की मनःस्थिति को दिखाया है, वह क़ाबिले तारीफ है। बाघिन का गुस्सा, सैनिक की बेबसी और छोटुआ (बाघिन का बच्चा) मजे लेना, तीनो एक साथ देखना मेरे लिए काफी रोमांचक था (टाइप करते वक़्त भी मेरे रोंगटे खड़े हैं) चौथी और आखिरी बात इनकी दोषमुक्त हिंदी, माइंड ब्लोइंग। खैर, इस नाटक तथा जावेद अख्तर खान के बारे में प्रदेश के नाट्य-दर्शक पहले से ही मुझसे ज्यादा जानते हैं ..............
Note- यह लेख नाटक बाघिन मेरी साथिन की समीक्षा नहीं है। यह लेख सिर्फ नाटक देखते हुए तथा देखने के बाद की मेरी अनुभूति पर आधारित है।

4 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी टिप्पणी !
    बधाइयाँ !
    यह एक युवा रंगमंच-आलोचक के उदय का शुभ संकेत है !!
    स्वागत युवा नाट्यालोचक !
    इसी तरह लिखते रहें और ख़ूब पढ़ें भी।
    शु भ का म ना एँ !

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  2. मैं प्रवेज अख्त्तर जी से सह्मत हुं... ओर आशा करता हुं कि इस युवा नाट्यालोचक को पुरा सह्योग मिलेगा रंगकर्मी समाज...

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  3. दो वर्षों के बाद, इस टिप्पणी को फिर से पढ़ा |
    टिप्पणी अच्छी है, बधाई |
    विपुल; उम्मीद है, इस बीच आपकी भाषा समृद्ध हुई होगी और सम्प्रेषण में संयम को लेकर ज़्यादा सचेत हुए होंगे |
    अनेक शुभकामनाएँ !

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