शनिवार, 7 मार्च 2015

मिथिला से बारह सौ किलोमीटर दूर दिल्ली में एक और मिथिला बसा चुका  है मैलोरंग।                      
                                                               -विपुल आनंद                       

श्री प्रकाश चन्द्र झा; निदेशक; मैलोरंग
मैलोरंग, यानि मैथिली लोक रंग; जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कि एक ऐसी संस्था जो मैथिली भाषा को प्रधानता देता हो मैलोरंग M.B- 57B गली संख्या -2, मधुबन रोड, शकरपुर, दिल्ली -92 स्थित एक विकासशील रंग संस्था है जो पुरे भारत में लगातार कई वर्षों से हिंदी व मैथिली में रंगकर्म करती रही है जिसके संस्थापक युवा रंगकर्मीं एवं शोधार्थी श्री प्रकाश चन्द्र झा हैं, जिन्होंने साल 2005 में मैलोरंग की नींव राखी थी  

सबसे पहले तो मैलोरंग की पूरी यूनिट को बधाई जो कई नाट्य महोत्सव, सम्मान समारोह को सफल बनाने में सफल रहे साथ ही दिल्ली में एक खास दर्शक वर्ग बनाने में भी कामयाब रहे एक ऐसा दर्शक वर्ग जो मैथिल न होते हुए भी मैथिली में नाटक देखना व सुनना पसंद करते हैं सचमुच दिल्ली जैसे बहुभाषिय शहर में अपने आप को स्थापित करना, अपनी गतिविधियों को संतुलित रखना, मैलोरंग के मैथिली के प्रति समर्पित होने की ओर इशारा करता है शायद यह समर्पण ही वो वजह है जो मैलोरंग को भारतीय रंगमच में एक महत्पूर्ण स्थान देती है पिछले दस वर्षों में मैलोरंग ने कई आयोजन किये जिसमे मिथिलोत्सव, मलंगिया नाट्य महोत्सव, कथा संकिर्तन इत्यादि का मुख्य हैं इसके आलावा मैलोरंग कई सम्मान समारोहों का भी आयोजन करती आई है जिसमे मैथिली रंगमंच व मिथिला जगत में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले संस्कृतिकर्मियों को सम्मानित करती रही है। इसप्रकार आप कह सकते हैं कि  मैलोरंग युवाओं की वो टोली जो न सिर्फ नाटक करती है बल्कि रंगकर्म की दूसरी विधाओं को भी प्रधानता देती है 
नाटक- "मैथिल नारी ; चार रंग "के एक दृश्य में सत्या मिश्रा एवं सोनिया झा 
मैलोरंग जहाँ विद्यापति लिखित संस्कृत नाटक मणिमंजरी व शेक्सपियर लिखित नाटक इंग्लिश नाटक रोमियो जुलिअट को पहली बार मैथिली में मंचन करने का गौरव रखती है, वहीँ हाल में ही प्रदर्शित नाटक ‘मैथिल नारी चार रंग’ को ‘देवेन्द्र राज अंकुर’ जैसे शीर्ष रंगनिर्देशक के कुशल निर्देशन का भी अनुभव प्राप्त है मैलोरंग के लिए यह काफी सुखद है कि मैलोरंग अपनी प्रस्तुति – “मैथिल नारी चार रंग” का आठवां प्रदर्शन करने जा रही है किसी भी क्षेत्रिय भाषा को जल्दी यह नसीब नहीं होता लेकिन कितने ताज्जुब की बात है कि मैथिली भाषा के इतने लोकप्रिय होने के बावजूद भी मैथिल लोग मैथिली में बात करना भी पसंद नहीं करतेऐसे में Mailorang publication (मैलोरंग पब्लिकेशन) से प्रकशित होने वाली मैथिली भाषा की पत्रिका ‘मैलोरंग’ एवं नाटक संग्रह “मलंगिया के सात नाटक” मैथिली भाषा को वैश्वीकरण करने का संदेश देती है चुकी भाषा हमारे एक होने की पहचान है, इसलिए मैलोरंग अपने कार्यालय के अन्दर मैथिल भाषी को मैथिली ही बोलने का अनुरोध करती है. “भारतीय रंगमंच को राष्ट्रीय रंगमंच के बजाय क्षत्रिय रंगमंच होना चाहिए” (महान रंगचिंतक एवं रंगनिर्देशक ‘ब. ब. कारंत’ अनुसार) इस कथन को पुनर्सत्य कर मैलोरंग दिल्ली में भी मिथिला की संस्कृति को नहीं भूलता है। जो मैलोरंग के हर नाटक में साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। इसके अलावा मैलोरंग अपने आयोजन में मिथिला की पारंपरिक कथा संकीर्तन का आयोजन कर दिल्ली के रंग दर्शकों को मिथिला की परंपरा एवं संस्कृति से भी अवगत करने का सौभाग्य रखती है
युवा प्रतिभाओं के लिए बहुराहा (बहुत रस्ते वाला चौक) मैलोरंग अपने युवाओं को सिर्फ रंगमंच तक ही सिमित नहीं रखता, बल्कि उसके मिडिया जगत में भी सफल होने दे द्वार खोलता है जिसका ज्वलंत उदाहरण है–दुर्गेश चौधरी (फिल्म – हायवे; आदू), शशि रंजन (धारावाहिक – तेरे मेरे सपने; सरजू), विपुल आनंद (धारावाहिक- बस एक चाँद मेरा भी; आदित्य) , अनिल मिश्रा (भोजपुरी फिल्म अभिनेता) इत्यादि अनेक नाम हैं जिन्हें मैलोरंग ने मिडिया में भी सक्रीय रहने के लिए प्रोत्साहित किया। मैलोरंग का प्रोडक्शन हाउस MLR.pvt.ltd (मैलोरंग स्टूडियो). जो लगातार मैथिली लोकगीत, फिल्म, इत्यादि का निर्माण कर लोगों को रोजगार भी प्रदान करती है
नाटक - 'चन चकोर' के एक दृश्य में सुश्री सत्या मिश्रा एवं ज्योति झा 
यूँ तो बिहार एवं बिहार के बहार मैथिली भाषा में रंगकर्म कर रहे अनेक रंग संस्थाएं हैं, जो मैथिली में लगभग दो दसक से से रंगकर्म कर रही है लेकिन निरंतरता और गुणवत्ता के मामले में मैलोरंग उन तमाम रंग संस्थाओं से खुद को अलग करती है मैथिली रंगमंच के लिए यह चिंता का विषय है कि मैथिल अभिनेता होते हुए भी अभिनेता मैथिली रंगमंच में काम नहीं करना चाहते मैथिल रंग विदूषकों का मैथिली रंगकर्म को लेकर गंभीर नहीं होना भी इसका एक बहुत बड़ा कारण है टाइम पास या सिर्फ शौक के लिए रंगमंच करने का रवैया मैथिल रंगमंच को उठने नहीं दे रहा है कितने ताज्जुब की बात है कि इतने प्रतिभवान मैथिल के बावजूद भी मैथिली रंगमंच जस का तस है खैर मैलोरंग इस मामले में खुशनसीब है कि मैलोरंग से जुड़े रंगविदुषक व रंगकर्मी उर्जावान तथा सक्रिय हैं और यही कारण है कि मैथिल अभिनेता की पहली पसंद मैलोरंग है

फ़िलहाल मैलोरंग बिहार के मधुबनी जिले के टाउन हाल में अपना नवनाट्य महोत्सव “मिथिला रंग महोत्सव” करने जा रही है तीन दिन तक चलने वाले इस रंगोत्सव में कुल चार नाटकों का प्रदर्शन होगा उन नाटकों के नाम हैं- जल डमरू बजे, देह पर कोठी खासा दीअ,मैथिल नारी : चार रंग एवं चन चकोर (Romio Juliat) जो क्रमशः 1,2 एवं 3, मई को प्रदर्शित होना है.

मैलोरंग को मिथिला रंग महोत्सव लिए हार्दिक शुभकामनाएं...!

नोट- यह आलेख मेरे अवलोकन के आधार पर लिखा गया है, आपके अवलोकन पर इस आलेख का    स्वरुप  दूसरा भी हो सकता है...

गुरुवार, 5 मार्च 2015

‘न्यायप्रिय’ की प्रस्तुति, हिंसा और घृणा का विरोध करते हुए, क्रांतिकारिता के उच्चतम आदर्शों की पुनर्स्थापना करती है।
• विपुल आनन्द

‘न्यायप्रिय’ प्रख्यात लेखक अल्बेर कामू के प्रसिद्ध फ्रेंच नाटक ‘ले जस्ट’ (Les justes) का हिन्दी में, भारतीय रूपांतरण है। प्रो. शरत चन्द्र और समाजवादी चिन्तक सच्चिदानंद सिन्हा के दो अलग-अलग अनुवादों के आधार पर नाट्यदल द्वारा प्रस्तुति-आलेख तैयार किया गया। रूपांतरण के क्रम में; यह प्रस्तुति, मूल-नाटक की चेतना को समग्र अर्थवत्ता के साथ विस्तारित करती है।

     फरवरी 2015 के दिनांक 8, 9 और 10 को प्रदर्शित नाटक न्यायप्रिय जहाँ एक ओर दर्शकों को सुखद नाट्यानुभव देता है। वहीँ दूसरी ओर संस्कृतिकर्मी/नाट्यकर्मियों को रचनात्मकता के नए आयाम से रू-ब-रू भी कराता है। 1905 की रूसी क्रान्ति की पृष्ठभूमि में लिखे, कामू के नाटक ‘ले जस्ट’ की परिवेश, परिघटना और सम्वेदना को रूस से पटना के प्रेमचंद रंगशाला के मंच तक लाने में नटमंडप, निःसंदेह कामयाब रहा। भारतीय रूपांतरण का यह सफर चाहे जैसा भी रहा हो, यह प्रस्तुति भारत की आजादी के लिए लड़ रहे क्रांतिकारियों के वैचारिक संघर्ष और क्रांति के सवालों से साक्षात्कार ज़रूर कराती है। यह प्रस्तुति कई मायने में देश में हो रहे अनेक नाटकों से खुद को अलग करती है और एक ऐसी कतार में जा खड़ी होती है, जहाँ पहुचने के लिए नाट्य-दल को कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। वरिष्ठ रंग-निर्देशक परवेज़ अख्तर के निर्देशन में एक बात, जो मुझे सबसे अच्छी लगती है कि प्रस्तुति में निर्देशक, अभिनेता के माध्यम से दिखता है; न कि सेट् और डिज़ाइन के माध्यम से। प्रस्तुति में वस्त्र-विन्यास, चरित्रगत विशिष्टता को निखारने में जितना योगदान कर रहा था, उतना ही यह नयनप्रिय भी था। एक दर्शक के रूप में मै इस बात से हैरान हूँ कि परवेज़ दा के नाटक में मेकअप, प्रकाश, वस्त्र, डिज़ाइन वगैरह सारी चीज़ें, इसप्रकार संयोजित की जाती हैं कि ये अभिनेता के माध्यम से ही दिखती है । प्रस्तुति के केन्द्र में अभिनेता और अभिनेता होता है, दूसरी चीज़ें उसके सम्प्रेषण में सहायक की भूमिका में होती हैं।

मेरे आज तक के नट्यानुभव में ऐसा पहली बार हुआ, जिसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, यहाँ तक कि उनमें से कुछ तो मेरे को-एक्टर रहे हैं; लेकिन न्यायप्रिय के मंचन के दौरान मै उन्हें मंच पर पहचान नहीं पाया। वो थे श्री उमाकांत झा (बाबा) जो भीमा के किरदार में थे। अपनी अभिनय क्षमता की एक झलक के साथ, उन अनेक नए रंगकर्मियों का भ्रम तोड़ गए, जो छोटा किरदार नहीं करना चाहते। हालाँकि जावेद दा, अजीत दा समेत; सभी अभिनेताओं ने अपने किरदार के साथ न्याय कर, नाटक को सफल बनाया। खैर, एक अदना सा रंगपथिक होने के नाते मैं न्यायप्रिय के अभिनेताओं के अभिनय पर कोई टिपण्णी करने में अक्षम हूँ । सच कहूँ तो मुझे अभिनय की बारीकियाँ, जो पहले कई बार बताने से समझ में नहीं आ रही थीं, उन्हें प्रस्तुति के दौरान समझने में काफी मदद मिली .... ।


न्यायप्रिय के सफल मंचन के लिए नटमंड़प को हार्दिक बधाई . . . . !

नोट – यह आलेख नाटक “न्यायप्रिय” के प्रति मेरे अपने विचार हैं, आपके भिन्न भी हो सकते हैं...