गुरुवार, 5 मार्च 2015

‘न्यायप्रिय’ की प्रस्तुति, हिंसा और घृणा का विरोध करते हुए, क्रांतिकारिता के उच्चतम आदर्शों की पुनर्स्थापना करती है।
• विपुल आनन्द

‘न्यायप्रिय’ प्रख्यात लेखक अल्बेर कामू के प्रसिद्ध फ्रेंच नाटक ‘ले जस्ट’ (Les justes) का हिन्दी में, भारतीय रूपांतरण है। प्रो. शरत चन्द्र और समाजवादी चिन्तक सच्चिदानंद सिन्हा के दो अलग-अलग अनुवादों के आधार पर नाट्यदल द्वारा प्रस्तुति-आलेख तैयार किया गया। रूपांतरण के क्रम में; यह प्रस्तुति, मूल-नाटक की चेतना को समग्र अर्थवत्ता के साथ विस्तारित करती है।

     फरवरी 2015 के दिनांक 8, 9 और 10 को प्रदर्शित नाटक न्यायप्रिय जहाँ एक ओर दर्शकों को सुखद नाट्यानुभव देता है। वहीँ दूसरी ओर संस्कृतिकर्मी/नाट्यकर्मियों को रचनात्मकता के नए आयाम से रू-ब-रू भी कराता है। 1905 की रूसी क्रान्ति की पृष्ठभूमि में लिखे, कामू के नाटक ‘ले जस्ट’ की परिवेश, परिघटना और सम्वेदना को रूस से पटना के प्रेमचंद रंगशाला के मंच तक लाने में नटमंडप, निःसंदेह कामयाब रहा। भारतीय रूपांतरण का यह सफर चाहे जैसा भी रहा हो, यह प्रस्तुति भारत की आजादी के लिए लड़ रहे क्रांतिकारियों के वैचारिक संघर्ष और क्रांति के सवालों से साक्षात्कार ज़रूर कराती है। यह प्रस्तुति कई मायने में देश में हो रहे अनेक नाटकों से खुद को अलग करती है और एक ऐसी कतार में जा खड़ी होती है, जहाँ पहुचने के लिए नाट्य-दल को कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। वरिष्ठ रंग-निर्देशक परवेज़ अख्तर के निर्देशन में एक बात, जो मुझे सबसे अच्छी लगती है कि प्रस्तुति में निर्देशक, अभिनेता के माध्यम से दिखता है; न कि सेट् और डिज़ाइन के माध्यम से। प्रस्तुति में वस्त्र-विन्यास, चरित्रगत विशिष्टता को निखारने में जितना योगदान कर रहा था, उतना ही यह नयनप्रिय भी था। एक दर्शक के रूप में मै इस बात से हैरान हूँ कि परवेज़ दा के नाटक में मेकअप, प्रकाश, वस्त्र, डिज़ाइन वगैरह सारी चीज़ें, इसप्रकार संयोजित की जाती हैं कि ये अभिनेता के माध्यम से ही दिखती है । प्रस्तुति के केन्द्र में अभिनेता और अभिनेता होता है, दूसरी चीज़ें उसके सम्प्रेषण में सहायक की भूमिका में होती हैं।

मेरे आज तक के नट्यानुभव में ऐसा पहली बार हुआ, जिसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ, यहाँ तक कि उनमें से कुछ तो मेरे को-एक्टर रहे हैं; लेकिन न्यायप्रिय के मंचन के दौरान मै उन्हें मंच पर पहचान नहीं पाया। वो थे श्री उमाकांत झा (बाबा) जो भीमा के किरदार में थे। अपनी अभिनय क्षमता की एक झलक के साथ, उन अनेक नए रंगकर्मियों का भ्रम तोड़ गए, जो छोटा किरदार नहीं करना चाहते। हालाँकि जावेद दा, अजीत दा समेत; सभी अभिनेताओं ने अपने किरदार के साथ न्याय कर, नाटक को सफल बनाया। खैर, एक अदना सा रंगपथिक होने के नाते मैं न्यायप्रिय के अभिनेताओं के अभिनय पर कोई टिपण्णी करने में अक्षम हूँ । सच कहूँ तो मुझे अभिनय की बारीकियाँ, जो पहले कई बार बताने से समझ में नहीं आ रही थीं, उन्हें प्रस्तुति के दौरान समझने में काफी मदद मिली .... ।


न्यायप्रिय के सफल मंचन के लिए नटमंड़प को हार्दिक बधाई . . . . !

नोट – यह आलेख नाटक “न्यायप्रिय” के प्रति मेरे अपने विचार हैं, आपके भिन्न भी हो सकते हैं...

1 टिप्पणी:

  1. टिप्पणी छोटी, किन्तु अच्छी है |
    बधाई !
    नाट्यालोचना के क्षेत्र में कम ही लोग सक्रिय हैं, आप इस दिशा में लगातार प्रयासरत हैं - यह अच्छी बात है | इसे जारी रखें |

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