शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

भारत रंग महोत्सव 2017 का तीसरा दिन

पिंटू के पिता के किरदार में मनोहर तेली 






आज मैंने तीन प्रस्तुतियां देखीं संक्रमण, गबरगिचोरन के माई एवं चेखव चैका. सच कहूँ तो आज का दिन मेरे लिए बेहद सफल रहा. ये ठीक वैसा ही था जैसा मैंने BRM2017 आने से पहले कल्पना किया था. एक ओर जहाँ नाटक “संक्रमण” में एक अभिनेता आपने अभिनय के माध्यम से दो पीढ़ियों की कहानी को कहता है जिसमें एक बुढा बाप अपने बेटे से उनका अनुभव साझा करना चाहता है डालती उम्र की वजह से पिता अपने बेटे के भलाई खातिर उन छोटी छोटी बातों/ चीजों/ ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश करता है जिसपर हमारे पीढ़ी के लोगों का ध्यान नहीं जाता है. बेटा पिता की बातों को भरसक पूरा करने की कोशिश करता है लेकिन कामयाब नहीं हो पाता है नतीजा पिताजी चिरचिरे हो जाते हैं. इसी बीच एक दिन पानी का टंकी ठीक करते समय पिताजी का पैर फिसल जाता है और अस्पताल में लम्बे खर्चे के बाद उनका देहांत हो जाता है. अब बेटे-बाप का प्यार इस प्रकार उजागर होता है कि पिताजी की जो आदतें बेटे को बुरी लगती थीं अब खुद करने लगे हैं. इस प्रकार कहानी अपने शीर्षक तक पहुँचती जाती है. इस नाटक में मुख्य रुप से अभिनय व प्रकाश ही था जो प्रेक्षागृह में बैठे दर्शकों को 70 मिनट मनोरंजन करने के लिए काफी था. जब बात एकल प्रस्तुति की होगी तो बात अभिनय की तो होगी ही. ऐसे में ‘मनोहर तेली’ (निर्देशक व अभिनेता दोनों थे) अपने किरदार को बहुत ही ईमानदारी से मंच पर जीवंत करते नज़र आते हैं. साथ ही बड़ी चालाकी से अपने किरदार को बदल कर लोगों को असमंजस में ला देते है कि पहले वाला किरदार कर रहा अभिनेता ही दूसरा किरदार कर रहा है या नहीं. जब जनाब अपने पिता का किरदार कर रहे होते हैं तो इनका बॉडी लैंग्वेज मंच पर प्रवेश करते हीं बूढ़े की उम्र कम से कम 55-60 वर्ष स्थापित करता है . आवाज़ में काँप-कपी के बजाय इन्होने बोलते समय स्टेज बिज़नस के साथ उठने बैठने में एक दर्द भरी आह का इस्तमाल किया जो इनके उम्र की पुष्टि करती है. डायलाग के साथ स्टेज बिज़नस को इन्होने पुरे नाटक में बरक़रार रखा जो दर्शकों को ध्यान नाटक पर केन्द्रित करने को मजबूर करती हैं. दूसरा किरदार पिंटू जो बहुत उर्जावान है और यही उर्जा का अंतर हीं बेटे की उम्र 30-35 साल के आसपास बताता है. अभिनेता मनोहर तेली ने पिंटू के किरदार की मजबूरियाँ, उलझनें व अंतर्द्वंद को बारीकी से प्रदर्शन करते हुए उसकी खूबसूरती को दर्शकों के सामने रखा. जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ कि यह नाटक मुख्य रुप से वाचिक अभिनय से समहं जाया गया था ऐसे में अभिनेता की संवाद आदायगी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. संवाद अदायगी में बदलाव के कारण किरदार और निखर कर सामने आता है जिसका जीवंत उदहारण नाटक संक्रमण है. नाटक के तीसरे किरदार माँ (जिसे जीवंत करना किसी भी पुरुष अभिनेता के लिए चुनौतीपूर्ण होता है) जो की बूढी महिला है और इस किरदार में मनोहर साब ने बॉडी में कंप-कपी तथा आवाज़ में मधुरता को जोड़ दिया जो नायटी पहनने के बाद बूढी औरत ही लगती हैं और सबसे ज्यादा चौकाने वाली स्थिति तब उत्पन्न होती है जब पिंटू अपने पिताजी जैसा व्यवहार करने लगता है जहाँ वो उसके पिता से अनंत प्रेम को वो छुपा नहीं पाता है. कुल मिलाकर यह नाटक कई बार देखने में मुझे शायद उबाऊ नहीं लगेगा.

                 

नाटक गबर घिचोरन के माई का एक दृश्य
आज की दूसरी प्रस्तुति भिखारी ठाकुर कृत एवं श्री तनवीर अख्तर निर्देशित नाटक “गबर घिचोर” (गबरघिचोरन के माई) खेला गया. नाटक गबरघिचोरन की माई एक नाजायज़ बच्चे की कहानी है जो पिता के परदेश जाने व वर्षों वापस नहीं लौटने का नतीजा है. यह नाटक एक पत्नी की वेदना व बाप के बिना एक बच्चे की स्थिति को बयां करती है. नाटक खांटी बिहारी शैली (नटुआ नाच) में प्रस्तुत किया गया जिसके कुछ गाने भिखारी बाबा के दुसरे नाटक बिदेसिया से लिया गया. नाटक गबरघिचोर को बिहार तथा बिहार के बहार के निर्देशकों ने अपने अंदाज़ में कई प्रस्तुतियाँ दी हैं जिनमें से कई सराहनीय प्रस्तुति रही हैं. यह नाटक अपने संगीत एवं कम्पोजीशन की वजह से अपने आपको को उन तमाम नाटकों से अलग खड़ी करती है. नाटक में पार्श्व संगीत देने वाले ‘श्री सीताराम सिंह’ के संगीत से भारतीय रंगमंच पहले से वाकिफ है और इस नाटक के संगीत के बाद उनका वर्चस्व परिभाषित होता है. नाटक में सूत्रधार को नटुआ के रुप में पेश किया गया जो बिहार के लगभग विलुप्त हो चुके परंपरा की याद दिलाता है. नटुआ जितनी रोचकता से कहानी को नृत्य व गायन के माध्यम से आगे बढाता है वहीँ अपने पीछे स्त्री का मुखौटा लगाकर महिला होने तथा उसके हाव-भाव को भी प्रदर्शित करता है. नाटक में खाट (खटिया) भिखारी बाबा के नाटक बिदेसिया की मुख्य किरदार प्यारी सुंदरी की याद दिलाती है जो लगभग इसी दौर से गुज़र रही है. नाटक के चार स्तम्भ किरदार गलीज, गलीज बो, गड़बड़ी और पंच के अभिनय पर बात किये बिना नाटक पर टिपण्णी नहीं किया जा सकता. नाटक में पंच की भूमिका कर रहे आशुतोष मिश्र बेहद मझे हुए अभिनेता हैं इनमे कोई संदेह नहीं लेकिन उनकी उर्जा इस उम्र में भी कई यूवाओं को भी अचंभित कर देगा इस बात का अंदाज़ा शायद कई लोगों को नहीं था. प्रस्तुति के दौरान उनका हाव-भाव का बदलना, समसमायिक पंच, इम्प्रोवायजेशन की टाइमिंग उन्हें अब भी युवा कहने को बाध्य करती है. नाटक के अन्य किरदार गड़बड़ी, गलीज व गलीज बो अपनी बेहतरीन अभिनय एवं गायन के साथ नाटक के ग्राफ को कभी नीचे नहीं होने दिया. नाटक में कुछ तकनिकी खराबी के बावजूद भी नाटक के निर्देशक की अच्छी पकड़ (command on whole play) नाटक में प्रस्तुति के दौरान दीखता है. नाटक के किरदार से लेकर प्रॉप्स तक का स्थान व गन्तव्य पर निर्देशक का कमांड मंचन के दौरान प्रतिबिंबित होता हैं. नाटक के वस्त्र विन्यास ठेंठ बिहारी, सामान्य लेकिन गबर घिचोर के जींस शर्ट में होना उसके गरीबी पर प्रश्नवाचक चिह्न लगता है. साथ हीं नाटक का प्रकाश परिकल्पना सामान्य रहा जिसे और बेहतर किया जा सकता है (जैसे अंत में गलीज एवं गलीज बो के मिलन को सफ़ेद के बजाय अन्य फ़िल्टर कलर के इस्तमाल से शायद उनके मन:स्थिति को अधिक उजागर किया जा सकता था.) खैर नाटक अपने अंत अपने दर्शक को बंधे रखने में कामयाब रहा साथ ही लोग बिदेसिया गीत गुनगुनाते बाहर निकलते दिखे. इस प्रस्तुति को देखने के लिए मुझे किसी को भी सलाह देने में हिचक नहीं होगी.


यह आलेख मेरे नाटक देखने के बाद अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर है आपकी राय शायद आलग हो...

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

         महाभारत

नाटक- महाभारत                                           निर्देशिका- अनुरुपा रॉय
नाटककार- अनामिका मिश्रा                     भाषा- अंग्रेजी / हिंदी / कन्नड़
                              
                                                    नाटक की अवधि-70 मिनट 

                    
                               
नाटक महाभारत से
भारत रंग महोत्सव का दूसरा दिन पहले से ही चर्चा में था जिसका एक कारण नाटकमहाभारतभी था. नाटक महाभारत मूल रुप से अपने 15 किरदारों के आतंरिक संघर्ष की प्रस्तुति है जैसा की निर्देशकीय में भी कहा गया है. यह नाटक मुख्य रुप से प्रायोगिक, रचनात्मक नायरेटीव फॉर्म में है. जिसमे दो सूत्रधार पुतुलछाया के माध्यम से कहानी की शुरुआत करते हैं. और बीच में गुरूजी हारमोनियम लेकर मंत्र का उच्चारण करते हैं और शुरू हो जाती है महाभारत की कथा. जो प्रोजेक्टर, कठपुतली, मुखौटे के माध्यम से अश्वथामा तक की पूरी कथा कह जाती हैप्रस्तुतिमहाभारतकी चर्चा शुरु करने से पहले यह बता देना बेहद ज़रूरी है कि गति-कथ्य-लय-ताल-बिम्ब-प्रतिबिम्ब की बीच का सामंजस लोगों को कुछ ही मिनटों में अपने दर्शकों को उसके कुर्सियों से चिपका देती है. और पुरे शो के दौरान दर्शक की संख्या बढती ही जाती है लिहाजा ऑडिटोरियम का गेट तक लोग खड़े होकर नाटक देखते हैं 
                   नाटक अपने प्रथम चरण में ही कथ्पुतिलियों की छाया बातचीत से अपने किरदार को स्थापित कर कहानी को अपने आगोश में ले लेती है जहाँ दोनो सूत्रधार कहानी को दिलचस्प अन्दाज में कहानी को आगे बढ़ने में कैटालिस्ट काम करते हैं वही बार बार अपना वेश एवं करदार बन कर कहानी का दृश्य भी सृजित करते हैं. जो नाटक खेलने की भारतीय लोक परंपरा को उजागर करती है.नाटक की भाषा जो हिंदी अंग्रेजी के 
मिश्रण से जहाँ रोचकता उत्पन्न करती है वहीं हँसते-हँसाते कई गंभीर बातें कहने में कामयाब रहती है. शकुनी का जुआ जो महाभारत का अभिन्न दृश्य है को मुखौटे संगीत से दिखाया गया जहाँ शकुनी को काले वस्त्र एवं युधिष्ठिर को उजले वस्त्र से जो बुराई अच्छाई  (क्रमशः) का द्योतक है. युधिष्ठिर के कंधे पर स्वर्ण रंग का मुखौटा जो युधिष्ठिर के हाथ को संचालित करता है इस बात की ओर इशारा करता है कहीं कहीं युधिष्ठिर सत्ता की लालच कुछ भी करने को तैयार है और अन्तः वो द्रोपदी को भी हार जाता है. द्रोपदी का चिर-हरण के साथ महाभारत की रण दुदुंभी बज उठती है. लेकिन यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रोपदी का वस्त्र काला रंग का था जो कई सवाल काढ़ा करती है क्या द्रोपदी का चरित्र.... या वो कोई अन्य बुराइयों से ग्रसित थी या अनार्य थी..?? खैर निर्देशक उसे वस्त्र नहीं द्रोपदी का बाल मानती हैं (ऐसा डायरेक्टर्स मीट में कहा गया). वही शिखंडी को लाल जोड़े में लाया जाता हैं. कठपुतलियों के साथ प्रयोग के दौरान निर्देशिका ने किरदार के अंतर्द्वंद्व तथा उनके मानसिक बिम्ब (Psychological Gesture) खास ध्यान रखती हैं और यही कारण है कि नाटक का अंतिम दृश्य में जब अश्वथामा अंध बर्बर पशु सा दीखता है और उसकी पशुता नाटक में खौफनाक दृश्य सृजित करता है. नाटक की अदायगी की बात करें तो नाटक सम्वाद से ज्यादा अपने सांकेतिक भाषा के लिए जाना जायेगा जिसमे सिर्फ शब्द है बल्कि उसके अर्थ के साथ एक काल्पनिक महाभारत की रचना भी करती है. मुझे नाटक के अंत में पीटर ब्रूक के महाभारत की यादें तजा होने लगी खैर मुझे नहीं पता की यह नाटक उनसे प्रभावित है कि नहीं लेकिन यह नाटक मुझे बार बार आकर्षित करेगा.

यह आलेख मेरे नाटक देखने के बाद अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर है आपकी राय शायद आलग हो...