शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2017

         महाभारत

नाटक- महाभारत                                           निर्देशिका- अनुरुपा रॉय
नाटककार- अनामिका मिश्रा                     भाषा- अंग्रेजी / हिंदी / कन्नड़
                              
                                                    नाटक की अवधि-70 मिनट 

                    
                               
नाटक महाभारत से
भारत रंग महोत्सव का दूसरा दिन पहले से ही चर्चा में था जिसका एक कारण नाटकमहाभारतभी था. नाटक महाभारत मूल रुप से अपने 15 किरदारों के आतंरिक संघर्ष की प्रस्तुति है जैसा की निर्देशकीय में भी कहा गया है. यह नाटक मुख्य रुप से प्रायोगिक, रचनात्मक नायरेटीव फॉर्म में है. जिसमे दो सूत्रधार पुतुलछाया के माध्यम से कहानी की शुरुआत करते हैं. और बीच में गुरूजी हारमोनियम लेकर मंत्र का उच्चारण करते हैं और शुरू हो जाती है महाभारत की कथा. जो प्रोजेक्टर, कठपुतली, मुखौटे के माध्यम से अश्वथामा तक की पूरी कथा कह जाती हैप्रस्तुतिमहाभारतकी चर्चा शुरु करने से पहले यह बता देना बेहद ज़रूरी है कि गति-कथ्य-लय-ताल-बिम्ब-प्रतिबिम्ब की बीच का सामंजस लोगों को कुछ ही मिनटों में अपने दर्शकों को उसके कुर्सियों से चिपका देती है. और पुरे शो के दौरान दर्शक की संख्या बढती ही जाती है लिहाजा ऑडिटोरियम का गेट तक लोग खड़े होकर नाटक देखते हैं 
                   नाटक अपने प्रथम चरण में ही कथ्पुतिलियों की छाया बातचीत से अपने किरदार को स्थापित कर कहानी को अपने आगोश में ले लेती है जहाँ दोनो सूत्रधार कहानी को दिलचस्प अन्दाज में कहानी को आगे बढ़ने में कैटालिस्ट काम करते हैं वही बार बार अपना वेश एवं करदार बन कर कहानी का दृश्य भी सृजित करते हैं. जो नाटक खेलने की भारतीय लोक परंपरा को उजागर करती है.नाटक की भाषा जो हिंदी अंग्रेजी के 
मिश्रण से जहाँ रोचकता उत्पन्न करती है वहीं हँसते-हँसाते कई गंभीर बातें कहने में कामयाब रहती है. शकुनी का जुआ जो महाभारत का अभिन्न दृश्य है को मुखौटे संगीत से दिखाया गया जहाँ शकुनी को काले वस्त्र एवं युधिष्ठिर को उजले वस्त्र से जो बुराई अच्छाई  (क्रमशः) का द्योतक है. युधिष्ठिर के कंधे पर स्वर्ण रंग का मुखौटा जो युधिष्ठिर के हाथ को संचालित करता है इस बात की ओर इशारा करता है कहीं कहीं युधिष्ठिर सत्ता की लालच कुछ भी करने को तैयार है और अन्तः वो द्रोपदी को भी हार जाता है. द्रोपदी का चिर-हरण के साथ महाभारत की रण दुदुंभी बज उठती है. लेकिन यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रोपदी का वस्त्र काला रंग का था जो कई सवाल काढ़ा करती है क्या द्रोपदी का चरित्र.... या वो कोई अन्य बुराइयों से ग्रसित थी या अनार्य थी..?? खैर निर्देशक उसे वस्त्र नहीं द्रोपदी का बाल मानती हैं (ऐसा डायरेक्टर्स मीट में कहा गया). वही शिखंडी को लाल जोड़े में लाया जाता हैं. कठपुतलियों के साथ प्रयोग के दौरान निर्देशिका ने किरदार के अंतर्द्वंद्व तथा उनके मानसिक बिम्ब (Psychological Gesture) खास ध्यान रखती हैं और यही कारण है कि नाटक का अंतिम दृश्य में जब अश्वथामा अंध बर्बर पशु सा दीखता है और उसकी पशुता नाटक में खौफनाक दृश्य सृजित करता है. नाटक की अदायगी की बात करें तो नाटक सम्वाद से ज्यादा अपने सांकेतिक भाषा के लिए जाना जायेगा जिसमे सिर्फ शब्द है बल्कि उसके अर्थ के साथ एक काल्पनिक महाभारत की रचना भी करती है. मुझे नाटक के अंत में पीटर ब्रूक के महाभारत की यादें तजा होने लगी खैर मुझे नहीं पता की यह नाटक उनसे प्रभावित है कि नहीं लेकिन यह नाटक मुझे बार बार आकर्षित करेगा.

यह आलेख मेरे नाटक देखने के बाद अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर है आपकी राय शायद आलग हो...


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